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Sunday, April 25, 2010
वो सिर्फ सर झुका के सुनता रहा सारे किस्से ...
जैसे के जानता ही नहीं इन्तहा गम की ...
उठी नज़र भी तो गोया ये कहा उसने ....
" तुमने मुहब्बत तो की , लेकिन कम की...."
हाथ कुछ और तो नहीं आया...
चंद ख्वाब हैं रूह में अटके हुए...
उभर आते है ज़ेहन पे कभी कभी ऐसे...
परिंदे हो सफ़र से भटके हुए....
उफ़ के मुश्किल है लौट आना उसका ...
और ना मुमकिन है भूल जाना उसे ...
ख़याल काफी हैं, लेकिन बयाँ नहीं होते ...
रफ़्तार रुक सी गयी है जैसे कलम की...
वो लफ्ज़ जो निगाहों से कहे गए सच हैं शायद....
" मैंने मुहब्बत तो की... लेकिन कम की..."
Avinash
जैसे के जानता ही नहीं इन्तहा गम की ...
उठी नज़र भी तो गोया ये कहा उसने ....
" तुमने मुहब्बत तो की , लेकिन कम की...."
हाथ कुछ और तो नहीं आया...
चंद ख्वाब हैं रूह में अटके हुए...
उभर आते है ज़ेहन पे कभी कभी ऐसे...
परिंदे हो सफ़र से भटके हुए....
उफ़ के मुश्किल है लौट आना उसका ...
और ना मुमकिन है भूल जाना उसे ...
ख़याल काफी हैं, लेकिन बयाँ नहीं होते ...
रफ़्तार रुक सी गयी है जैसे कलम की...
वो लफ्ज़ जो निगाहों से कहे गए सच हैं शायद....
" मैंने मुहब्बत तो की... लेकिन कम की..."
Avinash
माना के ये दर्द अब ज़ब्त के काबिल नहीं
लेकिन ये न भूल यहाँ कुछ भी मुकम्मिल नहीं
खू से सने हाथ खून से है आँख तर...
दिल फिर भी मुतमईन है के वो कातिल नहीं...
तेरा नाम तेरा ख़याल तेरा वस्ल तेरी आरज़ू ...
तू है तो मेरा हमसफ़र , कुछ भी मुझे हासिल नहीं...
सर झुका के कर रहा हूँ परस्तिश जो तेरी...
हाँ, बहुत मजबूर हूँ, मैं मगर बुजदिल नहीं...
ता-उम्र होगा देर तक एक तेरा ही इंतज़ार
दिखने भर का सख्त हूँ , ए यार मैं संगदिल नहीं......
अविनाश
लेकिन ये न भूल यहाँ कुछ भी मुकम्मिल नहीं
खू से सने हाथ खून से है आँख तर...
दिल फिर भी मुतमईन है के वो कातिल नहीं...
तेरा नाम तेरा ख़याल तेरा वस्ल तेरी आरज़ू ...
तू है तो मेरा हमसफ़र , कुछ भी मुझे हासिल नहीं...
सर झुका के कर रहा हूँ परस्तिश जो तेरी...
हाँ, बहुत मजबूर हूँ, मैं मगर बुजदिल नहीं...
ता-उम्र होगा देर तक एक तेरा ही इंतज़ार
दिखने भर का सख्त हूँ , ए यार मैं संगदिल नहीं......
अविनाश
एक दिन उसने तमन्ना ये की ....
छोड़ के साथ महबूब का , उड़े तनहा ....
रक्स बादलो पे करे
हवा पे लहराए
ऐसी परवाज़ भरे
जोर , जिसपे किसी का ना चले...
उसको देखा भी गया
हवाओं पे बल खाते हुए
साथ परिंदों के लहराते हुए
रक्स बादलो पे करते हुए
कभी गिरते कभी उभरते हुए
खूब परवाज़ थी लेकिन लम्बी न चली
कौन समझाए के पतंग के उड़ने के लिए
डोर का साथ भी ज़रूरी है....
अविनाश
छोड़ के साथ महबूब का , उड़े तनहा ....
रक्स बादलो पे करे
हवा पे लहराए
ऐसी परवाज़ भरे
जोर , जिसपे किसी का ना चले...
उसको देखा भी गया
हवाओं पे बल खाते हुए
साथ परिंदों के लहराते हुए
रक्स बादलो पे करते हुए
कभी गिरते कभी उभरते हुए
खूब परवाज़ थी लेकिन लम्बी न चली
कौन समझाए के पतंग के उड़ने के लिए
डोर का साथ भी ज़रूरी है....
अविनाश
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