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Sunday, September 19, 2010
अचानक बैठे बैठे कहा से याद आ गयी ये कुछ लाइन, नौकरी करने घर से निकला था और राखी का त्यौहार था, काम काज की उलझनों में घर जाने का वक़्त ही नहीं मिला... उस वक़्त शाहिद मीर का ये शेर बड़ा अच्छा लगता था , मनो उन्होंने मेरा ही तसव्वुर करके ये शेर लिखा था...
पहले वो शेर , और फिर कुछ मुक्त दोहे...
पढ़ लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए..
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए..
घिर आई शाम , सरसों के भी मुरझा गए है फूल..
उनसे मिलन के सारे बहाने निकल गए..
ख़ुद मछलियाँ पुकार रही है कहा है जाल..
तीरों की आरजू में निशाने निकल गए,,,
शाहिद हमारी आँख का आया उन्हें ख़याल...
जब मोतियों के सारे खजाने निकल गए...
और अब पेश है वो ख़याल...जिसने उन् दिनों काफी परेशान कर रक्खा था...
-
ऊंचे ऊँचे सपनो ने कैसा किया कमाल ..
राखी का दिन, सूनी कलाई , खाली पडा है भाल..
आंसू तक पी डाले लेकिन , बुझ ना पाई प्यास..
कुछ ऐसा ही बरसो से है इच्छा का इतिहास..
आँखों में आंसू बैठे है, मन में पसरा सन्नाटा ..
मेरे हिस्से में भी आया जो कुछ मैंने बांटा..
रोज़ ही खुलता है मुझ पर, इच्छाओ का भेद कोई..
यु लगता है के जैसे है, मन के तल में छेद कोई..
अविनाश..
पहले वो शेर , और फिर कुछ मुक्त दोहे...
पढ़ लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए..
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए..
घिर आई शाम , सरसों के भी मुरझा गए है फूल..
उनसे मिलन के सारे बहाने निकल गए..
ख़ुद मछलियाँ पुकार रही है कहा है जाल..
तीरों की आरजू में निशाने निकल गए,,,
शाहिद हमारी आँख का आया उन्हें ख़याल...
जब मोतियों के सारे खजाने निकल गए...
और अब पेश है वो ख़याल...जिसने उन् दिनों काफी परेशान कर रक्खा था...
-
ऊंचे ऊँचे सपनो ने कैसा किया कमाल ..
राखी का दिन, सूनी कलाई , खाली पडा है भाल..
आंसू तक पी डाले लेकिन , बुझ ना पाई प्यास..
कुछ ऐसा ही बरसो से है इच्छा का इतिहास..
आँखों में आंसू बैठे है, मन में पसरा सन्नाटा ..
मेरे हिस्से में भी आया जो कुछ मैंने बांटा..
रोज़ ही खुलता है मुझ पर, इच्छाओ का भेद कोई..
यु लगता है के जैसे है, मन के तल में छेद कोई..
अविनाश..
Thursday, September 9, 2010
बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया...
काबिल-ए-ज़िक्र इसमें अब बचा क्या है..
चाँद टूटे हुए ख्वाब के किस्से..
कुछ अरमान अधूरे बिलखते हुए..
ऐसे आंसू जो आँख ही में सूख गए..
एक अहसास जो महसूस भी ना हो पाया...
ज़िन्दगी जैसे हो सूखी हुई नदी कोई...
ठहर गयी है एक मकाम पे आकर...
बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया..
काबिल-ए-ज़िक्र , इसमें अब बचा क्या है..
रह रह के धुँआ उठता है खयालो का...
जाने सीने में आजकल सुलगता क्या है...
अवि,
काबिल-ए-ज़िक्र इसमें अब बचा क्या है..
चाँद टूटे हुए ख्वाब के किस्से..
कुछ अरमान अधूरे बिलखते हुए..
ऐसे आंसू जो आँख ही में सूख गए..
एक अहसास जो महसूस भी ना हो पाया...
ज़िन्दगी जैसे हो सूखी हुई नदी कोई...
ठहर गयी है एक मकाम पे आकर...
बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया..
काबिल-ए-ज़िक्र , इसमें अब बचा क्या है..
रह रह के धुँआ उठता है खयालो का...
जाने सीने में आजकल सुलगता क्या है...
अवि,
किये जा रहा बेरहम कैसे कैसे...
नन्ही सी जां पे सितम कैसे कैसे...
किया वादा तोड़े , ना कहके वो आये..
सहते हैं धोखे, हम कैसे कैसे...
बेख्वाब आँखें , ज़माने के ताने..
पाए हैं हमने अलम कैसे कैसे..
तुम्हारी मुहब्बत की रहगुज़र में..
हमने उठाये कदम कैसे कैसे...
यादें तुम्हारी लगे है हकीक़त ..
होते है दिल को वहम कैसे कैसे ...
अवि...
नन्ही सी जां पे सितम कैसे कैसे...
किया वादा तोड़े , ना कहके वो आये..
सहते हैं धोखे, हम कैसे कैसे...
बेख्वाब आँखें , ज़माने के ताने..
पाए हैं हमने अलम कैसे कैसे..
तुम्हारी मुहब्बत की रहगुज़र में..
हमने उठाये कदम कैसे कैसे...
यादें तुम्हारी लगे है हकीक़त ..
होते है दिल को वहम कैसे कैसे ...
अवि...
जिंदगी मेरी मेरे अल्लाह अब मेरी नहीं..
घर नहीं मंजिल नहीं कोई राह अब मेरी नहीं...
वो के जो करते थे हर एक दम पे दावे उम्र भर के..
काम निकला तो उन्हें भी ,परवाह अब मेरी नहीं...
शम्म-ए-कुश्ता पे परवाने लहराते नहीं..
क्या गिला उस से उसे जो चाह अब मेरी नहीं...
चल पड़ा हूँ तो मुझे अब धुप में जलना ही है..
माँ तेरे आँचल की ठंडी छाँह अब मेरी नहीं...
काफिर न होता तो भला मेरे पास और रस्ता क्या था..
तेरे दिल की पाक इबादतगाह अब ... मेरी नहीं..
अविनाश
घर नहीं मंजिल नहीं कोई राह अब मेरी नहीं...
वो के जो करते थे हर एक दम पे दावे उम्र भर के..
काम निकला तो उन्हें भी ,परवाह अब मेरी नहीं...
शम्म-ए-कुश्ता पे परवाने लहराते नहीं..
क्या गिला उस से उसे जो चाह अब मेरी नहीं...
चल पड़ा हूँ तो मुझे अब धुप में जलना ही है..
माँ तेरे आँचल की ठंडी छाँह अब मेरी नहीं...
काफिर न होता तो भला मेरे पास और रस्ता क्या था..
तेरे दिल की पाक इबादतगाह अब ... मेरी नहीं..
अविनाश
चलो मुद्दत का इंतज़ार रंग लाया तो सही...
तुम्हारे लब पे मेरा नाम आज आया तो सही...
मेरी कोशिश , मेरे ज़ज्बात को अंजाम मिल गया...
याद करके मुझे फिर कोई मुस्कुराया तो सही...
मेरी दुनिया पे फैले थे , तीरगी के अब्र ..
हाथ आया न सही, चाँद नज़र आया तो सही..
बहोत है इतनी तसल्ली के मेरा हाल देखकर
तुम्हे कोई शेर याद आया तो सही...
अविनाश
तुम्हारे लब पे मेरा नाम आज आया तो सही...
मेरी कोशिश , मेरे ज़ज्बात को अंजाम मिल गया...
याद करके मुझे फिर कोई मुस्कुराया तो सही...
मेरी दुनिया पे फैले थे , तीरगी के अब्र ..
हाथ आया न सही, चाँद नज़र आया तो सही..
बहोत है इतनी तसल्ली के मेरा हाल देखकर
तुम्हे कोई शेर याद आया तो सही...
अविनाश
Tuesday, August 31, 2010
महफ़िल हुई तमाम सितारे सहर की ओर चले,
हम भी लडखडाते कदमो से , अपने घर की ओर चले...
एक तेरी ना-मौजूदगी , उस पे शब्-ए-गम के सितम, '
तो खुद से होकर बेखबर जाने किधर की ओर चले...
राहें हो मुश्किल तो अपना घर ही अच्छा लगता है...
डूबता सूरज देखकर, परिंदे शजर की ओर चले...
अविनाश....
हम भी लडखडाते कदमो से , अपने घर की ओर चले...
एक तेरी ना-मौजूदगी , उस पे शब्-ए-गम के सितम, '
तो खुद से होकर बेखबर जाने किधर की ओर चले...
राहें हो मुश्किल तो अपना घर ही अच्छा लगता है...
डूबता सूरज देखकर, परिंदे शजर की ओर चले...
अविनाश....
साँसों को थाम रक्खा है कर कर के बहाने कितने...
तुम ना आये , आये गए ज़माने कितने....
दिल में तेरा ख़याल, आँखों में है सूरत तेरी..
तू ना हो तो, हैं मेरी ज़िन्दगी के म.आने कितने...
हर लब पे तेरा चर्चा, हर महफ़िल में तेरे किस्से...
जाने इस जहाँ में है तेरे चाहने वाले कितने...
अविनाश
तुम ना आये , आये गए ज़माने कितने....
दिल में तेरा ख़याल, आँखों में है सूरत तेरी..
तू ना हो तो, हैं मेरी ज़िन्दगी के म.आने कितने...
हर लब पे तेरा चर्चा, हर महफ़िल में तेरे किस्से...
जाने इस जहाँ में है तेरे चाहने वाले कितने...
अविनाश
फकत इतनी आरजू है, मैं अभी जिंदा रहूँ ..
मुझको पाने को एक मुद्दत से मचल रहा है कोई..
एक गुनाह हो रहा है, और खबर होती नहीं...
खुदाया, तुझको अपने आप से बदल रहा है कोई...
तनहा होकर भी एहसास मेरे तनहा नहीं होते...
इन अंधेरो में चराग बन के जल रहा है कोई..
हर कदम पे ये गुमां होता है, मेरे साथ चल रहा है कोई..
मेरे दर्द की तपन से अश्क बन के पिघल रहा है कोई...
अवि...
मुझको पाने को एक मुद्दत से मचल रहा है कोई..
एक गुनाह हो रहा है, और खबर होती नहीं...
खुदाया, तुझको अपने आप से बदल रहा है कोई...
तनहा होकर भी एहसास मेरे तनहा नहीं होते...
इन अंधेरो में चराग बन के जल रहा है कोई..
हर कदम पे ये गुमां होता है, मेरे साथ चल रहा है कोई..
मेरे दर्द की तपन से अश्क बन के पिघल रहा है कोई...
अवि...
Sunday, August 29, 2010
कहीं ऐसा तो नहीं...
तुम्हे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....
मैंने देखा है इन निगाहों ने...
उठती गिरती हुई पलकों का सहारा लेकर..
मुझसे कुछ कहने की नाकाम सी कोशिश की है..
हाले दिल बयाँ किया , कभी ख़ामोशी तो कभी मुझसे...
कुछ और देर ठहर जाने की गुज़ारिश की है...
लबों से कुछ न कहा तुमने लेकिन...
मैं सोचता हूँ निगाहों में हकीकत तो नहीं...
कहीं ऐसा तो नहीं, तुम्हे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....
कांपते हाथो ने तेरे थामी कलम,
दिल को अपने , कागज़ पे यूँ उतारा है,
लकीरें खींची फूल बनाएं, शेर लिक्खे हैं...
टेढ़ी मेढ़ी सी उन लकीरों में, तेरे शेरो में और फूलों में..
मेरा ही अक्स उभरता है ये लगता है...
तुने मेरे ही लिए ये कागज़ सभी सजाये है...
दामन में उलझी ऊँगलिया देखी तो ये महसूस किया...
तेरे हाथों को कहीं मेरे सहारे की जरूरत तो नहीं...
कहीं ऐसा तो नहीं..
तुझे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....
अविनाश ....
तुम्हे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....
मैंने देखा है इन निगाहों ने...
उठती गिरती हुई पलकों का सहारा लेकर..
मुझसे कुछ कहने की नाकाम सी कोशिश की है..
हाले दिल बयाँ किया , कभी ख़ामोशी तो कभी मुझसे...
कुछ और देर ठहर जाने की गुज़ारिश की है...
लबों से कुछ न कहा तुमने लेकिन...
मैं सोचता हूँ निगाहों में हकीकत तो नहीं...
कहीं ऐसा तो नहीं, तुम्हे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....
कांपते हाथो ने तेरे थामी कलम,
दिल को अपने , कागज़ पे यूँ उतारा है,
लकीरें खींची फूल बनाएं, शेर लिक्खे हैं...
टेढ़ी मेढ़ी सी उन लकीरों में, तेरे शेरो में और फूलों में..
मेरा ही अक्स उभरता है ये लगता है...
तुने मेरे ही लिए ये कागज़ सभी सजाये है...
दामन में उलझी ऊँगलिया देखी तो ये महसूस किया...
तेरे हाथों को कहीं मेरे सहारे की जरूरत तो नहीं...
कहीं ऐसा तो नहीं..
तुझे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....
अविनाश ....
छत पर बैठा दूर फलक में देख रहा हूँ....
एक चाँद है, एक सितारा....
और हजारों मील की दूरी....
बिल्कुल जैसे कमरे के एक कोने में तुम
बिल्कुल जैसे कमरे के एक कोने में मैं...
बीच में पसरी रस्मो रिवाजों की मजबूरी...
अजब बात है, कोई जहाँ हो...
मुश्किलें मुहब्बत का साया ही है...
अविनाश...
एक चाँद है, एक सितारा....
और हजारों मील की दूरी....
बिल्कुल जैसे कमरे के एक कोने में तुम
बिल्कुल जैसे कमरे के एक कोने में मैं...
बीच में पसरी रस्मो रिवाजों की मजबूरी...
अजब बात है, कोई जहाँ हो...
मुश्किलें मुहब्बत का साया ही है...
अविनाश...
Friday, August 13, 2010
मुख़्तसर सी बात थी, अरसा गुज़र गया...'
मैं बोल पाता इस से पहले वो जाने किधर गया....
सफ़र पूरे समंदर का तय किया लेकिन ...'
जजीरे को साहिल समझा, कश्ती से उतर गया...
आँखों में घुमते है, वाकये जाने कितने...
वो के जिसमे तू शामिल था, वो मंज़र किधर गया....
एक डोर के मानिंद थामे था तू मुझे...
तू जो गया तो मैं मोतियों के जैसे बिखर गया....
अविनाश...
मैं बोल पाता इस से पहले वो जाने किधर गया....
सफ़र पूरे समंदर का तय किया लेकिन ...'
जजीरे को साहिल समझा, कश्ती से उतर गया...
आँखों में घुमते है, वाकये जाने कितने...
वो के जिसमे तू शामिल था, वो मंज़र किधर गया....
एक डोर के मानिंद थामे था तू मुझे...
तू जो गया तो मैं मोतियों के जैसे बिखर गया....
अविनाश...
ले के आँखों में फिरते थे ,
हम एक खजाना ख्वाबो का...
कुछ छूट गए , कुछ टूट गए....
कुछ तो बड़े आजीज हुए
बनके महबूबा साथ रहे...
फिर एक ज़रा सी बात हुई...
वो भी सारे रूठ गए....
कुछ ख्वाब अभी तक जिंदा है
लेकिन ये मरासम महंगा है..
वो साथ रहे तो साथ रहे...
पर नींद हमारी लूट गए...
एक ख्वाब बड़ा जुनूनी है
अब भी आँखों में पलता है...
उस ख्वाब को जो सहलाया तो...
सब्र के धागे टूट गए....
अविनाश
हम एक खजाना ख्वाबो का...
कुछ छूट गए , कुछ टूट गए....
कुछ तो बड़े आजीज हुए
बनके महबूबा साथ रहे...
फिर एक ज़रा सी बात हुई...
वो भी सारे रूठ गए....
कुछ ख्वाब अभी तक जिंदा है
लेकिन ये मरासम महंगा है..
वो साथ रहे तो साथ रहे...
पर नींद हमारी लूट गए...
एक ख्वाब बड़ा जुनूनी है
अब भी आँखों में पलता है...
उस ख्वाब को जो सहलाया तो...
सब्र के धागे टूट गए....
अविनाश
Thursday, July 8, 2010
उफ़ के तकलीफ़ बहुत देती है ये हकीक़त ...
के मेरा वजूद आदमी का है...
जिंदगी जीने का मज़ा तो तब था
जब के तमाम दर्द तमाम दिक्कतें ज़हाँ की...
मैं यूं सह पाता जैसे माँ ने सही थी....
ये काँधे इस तरह झुक गए हैं..
ख़ुद अपने ही वज़न से...
के अपने ही क़द की ऊंचाई तलक से नहीं वाकिफ ...
रेंग के बसर होती जिंदगी यूं ही..
मज़ा तो तब था के देर रात दरवाज़े से टिक कर
ख़ुद मैंने कभी माँ की तरह खुद का रास्ता तका होता...
उफ़ के तकलीफ़ तब भी होती है...
मैं सोचता हूँ बे-ख़याल होकर....
नाम भर से ... वजूद मेरा जाहीर है ...
एक औरत की तरह मैं कभी जी पाया ही नही....
Avinash
के मेरा वजूद आदमी का है...
जिंदगी जीने का मज़ा तो तब था
जब के तमाम दर्द तमाम दिक्कतें ज़हाँ की...
मैं यूं सह पाता जैसे माँ ने सही थी....
ये काँधे इस तरह झुक गए हैं..
ख़ुद अपने ही वज़न से...
के अपने ही क़द की ऊंचाई तलक से नहीं वाकिफ ...
रेंग के बसर होती जिंदगी यूं ही..
मज़ा तो तब था के देर रात दरवाज़े से टिक कर
ख़ुद मैंने कभी माँ की तरह खुद का रास्ता तका होता...
उफ़ के तकलीफ़ तब भी होती है...
मैं सोचता हूँ बे-ख़याल होकर....
नाम भर से ... वजूद मेरा जाहीर है ...
एक औरत की तरह मैं कभी जी पाया ही नही....
Avinash
ख़ूब तरक्की पा ली मैंने...
ये आज कल मेरी चाल में भी दिखता है...
झुके हुए मेरे काँधे तने हैं...
आँख खूंरेज हैं....
कदम जम जम के रौंदते हैं ज़मीं...
ये आज कल मेरी बातों में भी सुनाई देता है...
लफ्ज़ चुन चुन के काम लाता हूँ...
सोचने का ढोंग करता हूँ.......
सुन ने से तो कर ही ली तौबा मैंने...
ये आज कल मेरे दोस्त भी बताते हैं मुझे....
मुझको खौफ बहोत रहने लगा है....
मैं रात रात भर चीखता चिल्लाता हूँ...
कभी कभी तो बंद पलकों के तले...
रात बे - नींद गुज़र जाती है....
ये मुझको भी महसूस अब होने लगा है...
मुझको एहसास नहीं होता किसी के भी गम का....
उलझा हुआ तो हूँ , वजह मगर कुछ भी नहीं...
लम्हे फुर्सत के बड़े लम्बे उदास लगते हैं....
ये माँ के चेहरे से भी बयाँ हो ही गया...
के देर रात मेरा इंतज़ार करने पे.....
भड़क उठा मैं, ये देख पाया ही नहीं...
के अब तलक वो भी भूखी बैठी थी...
ख़ूब तरक्की पा ली मैंने....
अविनाश
ये आज कल मेरी चाल में भी दिखता है...
झुके हुए मेरे काँधे तने हैं...
आँख खूंरेज हैं....
कदम जम जम के रौंदते हैं ज़मीं...
ये आज कल मेरी बातों में भी सुनाई देता है...
लफ्ज़ चुन चुन के काम लाता हूँ...
सोचने का ढोंग करता हूँ.......
सुन ने से तो कर ही ली तौबा मैंने...
ये आज कल मेरे दोस्त भी बताते हैं मुझे....
मुझको खौफ बहोत रहने लगा है....
मैं रात रात भर चीखता चिल्लाता हूँ...
कभी कभी तो बंद पलकों के तले...
रात बे - नींद गुज़र जाती है....
ये मुझको भी महसूस अब होने लगा है...
मुझको एहसास नहीं होता किसी के भी गम का....
उलझा हुआ तो हूँ , वजह मगर कुछ भी नहीं...
लम्हे फुर्सत के बड़े लम्बे उदास लगते हैं....
ये माँ के चेहरे से भी बयाँ हो ही गया...
के देर रात मेरा इंतज़ार करने पे.....
भड़क उठा मैं, ये देख पाया ही नहीं...
के अब तलक वो भी भूखी बैठी थी...
ख़ूब तरक्की पा ली मैंने....
अविनाश
आज फिर से वक़्त यूं ही ज़ाया हो गया.....
तुमको फुर्सत न मिली, मैं भी उलझा रहा हिसाबो में....
वो मुहब्बत के जिसकी तमन्ना थी ....
दफन हो के रह गई तेरी मेरी लिक्खी किताबो में...
ख़ुद के जैसा मैं हो पाया ही नहीं...
शख्सियत ग़ुम हो गई कहीं नकाबों में...
एक पहेली की तरह है ज़िन्दगी भी
कभी उलझी सवालों में, कभी रुसवा जवाबो में....
अजीब हाल है के होश नहीं रहता दिन भर
रात होते ही डूब जाता हूँ मैं जवाबो में......
अविनाश
तुमको फुर्सत न मिली, मैं भी उलझा रहा हिसाबो में....
वो मुहब्बत के जिसकी तमन्ना थी ....
दफन हो के रह गई तेरी मेरी लिक्खी किताबो में...
ख़ुद के जैसा मैं हो पाया ही नहीं...
शख्सियत ग़ुम हो गई कहीं नकाबों में...
एक पहेली की तरह है ज़िन्दगी भी
कभी उलझी सवालों में, कभी रुसवा जवाबो में....
अजीब हाल है के होश नहीं रहता दिन भर
रात होते ही डूब जाता हूँ मैं जवाबो में......
अविनाश
Sunday, April 25, 2010
वो सिर्फ सर झुका के सुनता रहा सारे किस्से ...
जैसे के जानता ही नहीं इन्तहा गम की ...
उठी नज़र भी तो गोया ये कहा उसने ....
" तुमने मुहब्बत तो की , लेकिन कम की...."
हाथ कुछ और तो नहीं आया...
चंद ख्वाब हैं रूह में अटके हुए...
उभर आते है ज़ेहन पे कभी कभी ऐसे...
परिंदे हो सफ़र से भटके हुए....
उफ़ के मुश्किल है लौट आना उसका ...
और ना मुमकिन है भूल जाना उसे ...
ख़याल काफी हैं, लेकिन बयाँ नहीं होते ...
रफ़्तार रुक सी गयी है जैसे कलम की...
वो लफ्ज़ जो निगाहों से कहे गए सच हैं शायद....
" मैंने मुहब्बत तो की... लेकिन कम की..."
Avinash
जैसे के जानता ही नहीं इन्तहा गम की ...
उठी नज़र भी तो गोया ये कहा उसने ....
" तुमने मुहब्बत तो की , लेकिन कम की...."
हाथ कुछ और तो नहीं आया...
चंद ख्वाब हैं रूह में अटके हुए...
उभर आते है ज़ेहन पे कभी कभी ऐसे...
परिंदे हो सफ़र से भटके हुए....
उफ़ के मुश्किल है लौट आना उसका ...
और ना मुमकिन है भूल जाना उसे ...
ख़याल काफी हैं, लेकिन बयाँ नहीं होते ...
रफ़्तार रुक सी गयी है जैसे कलम की...
वो लफ्ज़ जो निगाहों से कहे गए सच हैं शायद....
" मैंने मुहब्बत तो की... लेकिन कम की..."
Avinash
माना के ये दर्द अब ज़ब्त के काबिल नहीं
लेकिन ये न भूल यहाँ कुछ भी मुकम्मिल नहीं
खू से सने हाथ खून से है आँख तर...
दिल फिर भी मुतमईन है के वो कातिल नहीं...
तेरा नाम तेरा ख़याल तेरा वस्ल तेरी आरज़ू ...
तू है तो मेरा हमसफ़र , कुछ भी मुझे हासिल नहीं...
सर झुका के कर रहा हूँ परस्तिश जो तेरी...
हाँ, बहुत मजबूर हूँ, मैं मगर बुजदिल नहीं...
ता-उम्र होगा देर तक एक तेरा ही इंतज़ार
दिखने भर का सख्त हूँ , ए यार मैं संगदिल नहीं......
अविनाश
लेकिन ये न भूल यहाँ कुछ भी मुकम्मिल नहीं
खू से सने हाथ खून से है आँख तर...
दिल फिर भी मुतमईन है के वो कातिल नहीं...
तेरा नाम तेरा ख़याल तेरा वस्ल तेरी आरज़ू ...
तू है तो मेरा हमसफ़र , कुछ भी मुझे हासिल नहीं...
सर झुका के कर रहा हूँ परस्तिश जो तेरी...
हाँ, बहुत मजबूर हूँ, मैं मगर बुजदिल नहीं...
ता-उम्र होगा देर तक एक तेरा ही इंतज़ार
दिखने भर का सख्त हूँ , ए यार मैं संगदिल नहीं......
अविनाश
एक दिन उसने तमन्ना ये की ....
छोड़ के साथ महबूब का , उड़े तनहा ....
रक्स बादलो पे करे
हवा पे लहराए
ऐसी परवाज़ भरे
जोर , जिसपे किसी का ना चले...
उसको देखा भी गया
हवाओं पे बल खाते हुए
साथ परिंदों के लहराते हुए
रक्स बादलो पे करते हुए
कभी गिरते कभी उभरते हुए
खूब परवाज़ थी लेकिन लम्बी न चली
कौन समझाए के पतंग के उड़ने के लिए
डोर का साथ भी ज़रूरी है....
अविनाश
छोड़ के साथ महबूब का , उड़े तनहा ....
रक्स बादलो पे करे
हवा पे लहराए
ऐसी परवाज़ भरे
जोर , जिसपे किसी का ना चले...
उसको देखा भी गया
हवाओं पे बल खाते हुए
साथ परिंदों के लहराते हुए
रक्स बादलो पे करते हुए
कभी गिरते कभी उभरते हुए
खूब परवाज़ थी लेकिन लम्बी न चली
कौन समझाए के पतंग के उड़ने के लिए
डोर का साथ भी ज़रूरी है....
अविनाश
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