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Sunday, April 25, 2010

Maayusi

माना के ये दर्द अब ज़ब्त के काबिल नहीं
लेकिन ये न भूल यहाँ कुछ भी मुकम्मिल नहीं

खू से सने हाथ खून से है आँख   तर...
दिल फिर भी मुतमईन है के वो कातिल नहीं...

तेरा नाम तेरा ख़याल तेरा वस्ल तेरी आरज़ू ...
तू है तो मेरा हमसफ़र , कुछ भी मुझे हासिल नहीं...

सर झुका के कर रहा हूँ परस्तिश जो तेरी...
हाँ, बहुत मजबूर हूँ, मैं मगर बुजदिल नहीं...

ता-उम्र होगा देर तक एक तेरा ही इंतज़ार
दिखने भर का सख्त हूँ , ए यार मैं संगदिल नहीं......


अविनाश

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