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Thursday, September 9, 2010

जिंदगी मेरी मेरे अल्लाह अब मेरी नहीं..

जिंदगी मेरी मेरे अल्लाह अब मेरी नहीं..
घर नहीं मंजिल नहीं कोई राह अब मेरी नहीं...

वो के जो करते थे हर एक दम पे दावे उम्र भर के..
काम निकला तो उन्हें भी ,परवाह अब मेरी नहीं...

शम्म-ए-कुश्ता पे परवाने लहराते नहीं..
क्या गिला उस से उसे जो चाह अब मेरी नहीं...

चल पड़ा हूँ तो मुझे अब धुप में जलना ही है..
माँ तेरे आँचल की ठंडी छाँह अब मेरी नहीं...

काफिर न होता तो भला मेरे पास और रस्ता क्या था..
तेरे दिल की पाक इबादतगाह अब ... मेरी नहीं..
अविनाश

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