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Thursday, September 9, 2010
बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया...
काबिल-ए-ज़िक्र इसमें अब बचा क्या है..
चाँद टूटे हुए ख्वाब के किस्से..
कुछ अरमान अधूरे बिलखते हुए..
ऐसे आंसू जो आँख ही में सूख गए..
एक अहसास जो महसूस भी ना हो पाया...
ज़िन्दगी जैसे हो सूखी हुई नदी कोई...
ठहर गयी है एक मकाम पे आकर...
बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया..
काबिल-ए-ज़िक्र , इसमें अब बचा क्या है..
रह रह के धुँआ उठता है खयालो का...
जाने सीने में आजकल सुलगता क्या है...
अवि,
काबिल-ए-ज़िक्र इसमें अब बचा क्या है..
चाँद टूटे हुए ख्वाब के किस्से..
कुछ अरमान अधूरे बिलखते हुए..
ऐसे आंसू जो आँख ही में सूख गए..
एक अहसास जो महसूस भी ना हो पाया...
ज़िन्दगी जैसे हो सूखी हुई नदी कोई...
ठहर गयी है एक मकाम पे आकर...
बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया..
काबिल-ए-ज़िक्र , इसमें अब बचा क्या है..
रह रह के धुँआ उठता है खयालो का...
जाने सीने में आजकल सुलगता क्या है...
अवि,
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2 comments:
ज़िंदगी का ज़िक्र भले ही बेकार छेड़ दिया गया हो लेकिन आपने जो लिखा वो बहार कारगर है
I Appreciate your lovely post, happy blogging!!!
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