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Sunday, September 19, 2010

एक पुरानी याद

अचानक बैठे बैठे कहा से याद आ गयी ये कुछ लाइन, नौकरी करने घर से निकला था और राखी का त्यौहार था, काम काज की उलझनों में घर जाने का वक़्त ही नहीं मिला... उस वक़्त शाहिद मीर का ये शेर बड़ा अच्छा लगता था , मनो उन्होंने मेरा ही तसव्वुर करके ये शेर लिखा था...
पहले वो शेर , और फिर कुछ मुक्त दोहे...

पढ़ लिख गए तो हम भी कमाने निकल गए..
घर लौटने में फिर तो ज़माने निकल गए..
घिर आई शाम , सरसों के भी मुरझा गए है फूल..
उनसे मिलन के सारे बहाने निकल गए..
ख़ुद मछलियाँ पुकार रही है कहा है जाल..
तीरों की आरजू में निशाने निकल गए,,,
शाहिद हमारी आँख का आया उन्हें ख़याल...
जब मोतियों के सारे खजाने निकल गए...

और अब पेश है वो ख़याल...जिसने उन् दिनों काफी परेशान कर रक्खा था...


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ऊंचे ऊँचे सपनो ने कैसा किया कमाल ..
राखी का दिन, सूनी कलाई , खाली पडा है भाल..

आंसू तक पी डाले लेकिन , बुझ ना पाई प्यास..
कुछ ऐसा ही बरसो से है इच्छा का इतिहास..

आँखों में आंसू बैठे है, मन में पसरा सन्नाटा ..
मेरे हिस्से में भी आया जो कुछ मैंने बांटा..

रोज़ ही खुलता है मुझ पर, इच्छाओ का भेद कोई..
यु लगता है के जैसे है, मन के तल में छेद कोई..

अविनाश..

Thursday, September 9, 2010

बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया

बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया...
काबिल-ए-ज़िक्र इसमें अब बचा क्या है..

चाँद टूटे हुए ख्वाब के किस्से..
कुछ अरमान अधूरे बिलखते हुए..
ऐसे आंसू जो आँख ही में सूख गए..
एक अहसास जो महसूस भी ना हो पाया...

ज़िन्दगी जैसे हो सूखी हुई नदी कोई...
ठहर गयी है एक मकाम पे आकर...

बेकार ज़िन्दगी का ज़िक्र छेड़ दिया..
काबिल-ए-ज़िक्र , इसमें अब बचा क्या है..

रह रह के धुँआ उठता है खयालो का...
जाने सीने में आजकल सुलगता क्या है...
अवि,

कैसे कैसे

किये जा रहा बेरहम कैसे कैसे...
नन्ही सी जां पे सितम कैसे कैसे...

किया वादा तोड़े , ना कहके वो आये..
सहते हैं धोखे, हम कैसे कैसे...

बेख्वाब आँखें , ज़माने के ताने..
पाए हैं हमने अलम कैसे कैसे..
तुम्हारी मुहब्बत की रहगुज़र में..
हमने उठाये कदम कैसे कैसे...

यादें तुम्हारी लगे है हकीक़त ..
होते है दिल को वहम कैसे कैसे ...

अवि...

जिंदगी मेरी मेरे अल्लाह अब मेरी नहीं..

जिंदगी मेरी मेरे अल्लाह अब मेरी नहीं..
घर नहीं मंजिल नहीं कोई राह अब मेरी नहीं...

वो के जो करते थे हर एक दम पे दावे उम्र भर के..
काम निकला तो उन्हें भी ,परवाह अब मेरी नहीं...

शम्म-ए-कुश्ता पे परवाने लहराते नहीं..
क्या गिला उस से उसे जो चाह अब मेरी नहीं...

चल पड़ा हूँ तो मुझे अब धुप में जलना ही है..
माँ तेरे आँचल की ठंडी छाँह अब मेरी नहीं...

काफिर न होता तो भला मेरे पास और रस्ता क्या था..
तेरे दिल की पाक इबादतगाह अब ... मेरी नहीं..
अविनाश

बहोत है इतनी तसल्ली

चलो मुद्दत का इंतज़ार रंग लाया तो सही...
तुम्हारे लब पे मेरा नाम आज आया तो सही...

मेरी कोशिश , मेरे ज़ज्बात को अंजाम मिल गया...
याद करके मुझे फिर कोई मुस्कुराया तो सही...
मेरी दुनिया पे फैले थे , तीरगी के अब्र ..
हाथ आया न सही, चाँद नज़र आया तो सही..

बहोत है इतनी तसल्ली के मेरा हाल देखकर
तुम्हे कोई शेर याद आया तो सही...
अविनाश

Tuesday, August 31, 2010

महफ़िल हुई तमाम

महफ़िल हुई तमाम सितारे सहर की ओर चले,
हम भी लडखडाते कदमो से , अपने घर की ओर चले...

एक तेरी ना-मौजूदगी , उस पे शब्-ए-गम के सितम, '
तो खुद से होकर बेखबर जाने किधर की ओर चले...

राहें हो मुश्किल तो अपना घर ही अच्छा लगता है...
डूबता सूरज देखकर, परिंदे शजर की ओर चले...

अविनाश....

साँसों को थाम रक्खा है कर कर के बहाने कितने.

साँसों को थाम रक्खा है कर कर के बहाने कितने...
तुम ना आये , आये गए ज़माने कितने....

दिल में तेरा ख़याल, आँखों में है सूरत तेरी..
तू ना हो तो, हैं मेरी ज़िन्दगी के म.आने कितने...

हर लब पे तेरा चर्चा, हर महफ़िल में तेरे किस्से...
जाने इस जहाँ में है तेरे चाहने वाले कितने...

अविनाश