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Sunday, August 29, 2010

कहीं ऐसा तो नहीं...तुझे मुझसे मुहब्बत तो नहीं..

कहीं ऐसा तो नहीं...
तुम्हे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....

मैंने देखा है इन निगाहों ने...
उठती गिरती हुई पलकों का सहारा लेकर..
मुझसे कुछ कहने की नाकाम सी कोशिश की है..
हाले दिल बयाँ किया , कभी ख़ामोशी तो कभी मुझसे...
कुछ और देर ठहर जाने की गुज़ारिश की है...
लबों से कुछ न कहा तुमने लेकिन...
मैं सोचता हूँ निगाहों में हकीकत तो नहीं...
कहीं ऐसा तो नहीं, तुम्हे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....

कांपते हाथो ने तेरे थामी कलम,
दिल को अपने , कागज़ पे यूँ  उतारा है,
लकीरें खींची फूल बनाएं, शेर लिक्खे हैं...
टेढ़ी मेढ़ी सी उन लकीरों में, तेरे शेरो में और फूलों में..
मेरा ही अक्स उभरता है ये लगता है...
तुने मेरे ही लिए ये कागज़ सभी सजाये है...
दामन में उलझी ऊँगलिया देखी तो ये महसूस किया...
तेरे हाथों को कहीं मेरे सहारे की जरूरत तो नहीं...

कहीं ऐसा तो नहीं..
तुझे मुझसे मुहब्बत तो नहीं....

अविनाश ....

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